औरत / वरवर राव
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ऎ औरत !
वह तुम्हारा ही रक्त है
जो तुम्हारे स्वप्न और पुरुष की उत्कट आकांक्षाओं को
शिशु के रूप में परिवर्तित करता है ।
ऎ औरत !
वह भी तुम्हारा ही रक्त है
जो भूख और यातना से संतप्त शिशु में
दूध बन कर जीवन का संचार करता है ।
और
वह भी तुम्हारा ही रक्त है
जो रसोईघर में स्वेद
और खेत-खलिहानों के दानों में
मोती की तरह दमकता है ।
फिर भी
इस व्यवस्था में तुम मात्र एक गुलाम
एक दासी हो
जिसके चलते मनुष्य की उद्दंडता की प्राचीर के पीछे
धीरे-धीरे पसरती कालिमा
तुम्हारे व्यक्तित्व को
प्रसूति गृह में ढकेल कर
तुम्हें लुप्त करती रहती है ।
इस दुनिया में हर तरह की ख़ुशियाँ बिकाऊ हैं
लेकिन तुम तो सहज अमोल आनन्दानुभूति देती हो,
वही अन्त्तत: तुम्हें दबोच लेती है ।
वह जो तुम को
चमेली के फूल अथवा
एक सुन्दर साड़ी देकर बहलाता है,
वही शुभचिन्तक एक दिन उसके बदले में
तुम्हारा पति अर्थात मलिक बन बैठता है ।
वह जो एक प्यार भरी मुस्कान
अथवा मीठे बोल द्वारा
तुम पर जादू चलाता है ।
कहने को तो वह तुम्हारा प्रेमी कहलाता है
किन्तु जीवन में जो हानि होती है
वह तुम्हारी ही होती है
और जो लाभ होता है
मर्द का होता है ।
और इस तरह जीवन के रंगमंच पर
हमेशा तुम्हारे हिस्से में विषाद ही आता है ।
ऎ औरत !
इस व्यवस्था में इससे अधिक तुम
कुछ और नहीं हो सकतीं ।
तुम्हें क्रोध की प्रचंड नीलिम में
इस व्यवस्था को जलाना ही होगा ।
तुम्हें विद्युत-झंझा बन
अपने अधिकार के प्रचंड वेग से
कौंधना ही होगा ।
क्रान्ति के मार्ग पर क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ो
इस व्यवस्था की आनन्दानुभूति की मरीचिका से
मुक्त होकर
एक नई क्रान्तिकारी व्यवस्था के निर्माण के लिए
जो तुम्हारे शक्तिशाली व्यक्तित्व को ढाल सके ।
जब तक तुम्हारे हृदय में क्रान्ति के
रक्ताभ सूर्य का उदय नहीं होता
सत्य के दर्शन करना असम्भव है ।