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औरत / वर्तिका नन्दा
Kavita Kosh से
सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेली नहीं होती
उसका साया होती है मज़बूरी
आँचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य
औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती
सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा
सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ
औरत के पास
अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शरीर में घुले हुए
किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का
सहारे की तलाश में
मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
साँस भी डर कर लेती है
फिर भी
ज़रूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है