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औरत / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
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दुख छै दुखोॅ के पास छै औरत के जिंदगी।
सुख चाह में उदास छै औरत के जिंदगी।
मरी-मरी के जीयै छै कि जीयै लेॅ रोजे मरै।
एक चलती फिरती लाश छै औरत के जिंदगी।
स्वछंद सरंग में सपना बनी घूमै-फिरै रोजे,
गोड़ोॅ नीचू के घास छेकै औरत के जिंदगी।
घूमै चक्का सुदर्शन तहियो भी जाल नै कटै,
आपनो जीहोॅ के संत्रास छै औरत के जिंदगी।
कोय उमर नियत नै घिनौना जाल फांसै लेॅ,
घर-गाँव, शहर सगरोॅ फाँस छै औरत के जिंदगी।
कोय कृष्ण कहाँ आवै कारागृह सें मुक्ति दै लेली,
एक आस एक विश्वास छै औरत के जिंदगी।