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औरों के दुख अपनाओ / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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अपना थोड़ा-सा दुख भी भारी लगता है।
औरों के दुख अपनाओं तो कुछ बात बने।

कोई भी आँचल ऐसा नहीं मिले शायद,
जिसमें कुछ सिसकी आँसू नहीं बंधे होंगे।
अधरों पर झुठलाती मुस्कान भले खेले,
पर दिल में ग़म के रेले नहीं छिपे होंगे।

मन की गाँठें पर कौन किसी की खोल सका?
किसको किसकी सुनने का है अवकाश यहाँ?
केवल अपनी वाणी ही मुखरित लगती हे।
औंरों की भी सुन पाओं तो कुछ बात बने।।

अपना थोड़ा-सा दुख भी भारी लगता है।
औरों के दुख अपनाओं तो कुछ बात बने।

कहते हैं सागर में भी ज्वाला होती है,
सुनते हैं, हिम की भी तासीर गर्म होती।
आँसू में औ शबनम में बस अंतर इतना,
है कहीं चेतना और कहीं जड़ता रोती,

जब जीना ही है लक्ष्य यहाँ इस दुनिया में,
फिर दुख को बोझ मान लेने से क्या होगा?
सुख-दुख आँख-मिचौली चलती रहती है,
औरों को धीर बंधाओ तो कुछ बात बने।।

अपना थोड़ा-सा दुख भी भारी लगता है।
औरों के दुख अपनाओं तो कुछ बात बने।

दुख सहे बिना ही सुख होता उपलब्ध अगर,
अस्तित्व कहाँ रहता फिर सबल विचारो का?

पतझारों का होता न आगमन उपवन में,
तो मूल्य यहाँ होता न बसन्त-बहारों का।
समतल होता यदि मानव-जीवन का पथ तो,
सच कहता हूँ रसहीन ज़िन्दगी हो जाती।
मिल सकी भरोस फूलों के मंज़िल किसको?
काँटों पर क़दम बढ़ाओं तो कुछ बात बने।।

अपना थोड़ा-सा दुख भी भारी लगता है।
औरों के दुख अपनाओं तो कुछ बात बने।

दुख की प्राची से सुख का सूर्य उदय होता,
हर निशा-गर्भ से जन्म सवेरा लेता है।
हर ठोकर बल देती पंथी को बढ़ने का,
हर कष्ट विजय को मौन निमंत्रण देता है।
रिसते घावों पर जो न लगा पाया मरहम,
सुख में तो बीन बजाना है आसान बहुत,
दुख-दर्दों में हँस-गाओ तो कुछ बात बने।।

अपना थोड़ा-सा दुख भी भारी लगता है।
औरों के दुख अपनाओं तो कुछ बात बने।