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और एक नाटक खेलो / कविता भट्ट
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गहन थी रात , नींद अधूरी,
कामना सिसकी, हुई न पूरी।
मृत स्वप्नों का बोझ उठाए,
काँधे लादा थोड़ा मुस्काए।
नया दिवस है- नया सवेरा,
चलो घूम लें और एक फेरा।
क्या खोया और कितना पाया,
कठिन गणित समझ न आया।
फिर गीता को मन ने उच्चारा,
कर्म में ही अधिकार हमारा।
और एक नाटक खेलो इस दिन,
कुछ सच्चे-झूठे लोगों को गिन।
लगा मैं कुछ भी न कर सकी,
सपने बाँहों में न भर सकी।
फिर सोचा जो थे मेरे सपने,
कुछ लोगों के हुए जो अपने।
उन्होंने भी क्या विशेष किया,
स्वयं ही पशुवत् खाया-पिया।
तो फिर मैं कुछ अच्छा कर लूँ,
जग की हँसी आँखों में भर लूँ।