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और कितनी पीर पालूँ / अमरेन्द्र
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और कितनी पीर पालूँ ?
चलने से पहले गिना लूँ ।
प्राण के बहकावे में आ
साँस ने मुझको छला है,
मेरी निधि मुझको लगी है-
नश्वरा है, चंचला है;
स्वप्न का छल मुझसे केवल
सब लिखे अक्षर हुए क्षर,
फूल बनने से ही पहले
भाव, आँसू-से झरे झर;
जब नहीं अपना पता कुछ
क्या किसी का मैं पता लूँ !
नियति का ही खेल है या
विधि विधाता की चिरन्तन,
कामनाओं के करों में
कौन डाले हुए बंधन ?
आह पर भी रोक जब हो
क्या कोई खुशियाँ मनाए !
कौन कहता कुसुम-गिरि से
‘जो यहाँ पर, लौट जाए !’’
समय सुनना ही न चाहे
क्या करे मन-गीत गा लूँ !