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और किसी से क्या लड़ना है ? / मल्लिका मुखर्जी
Kavita Kosh से
पगलाई मैं ख़ुद से लड़कर, और किसी से क्या लड़ना है ?
कुम्हलाई कलियाँ डाली पर,
ऐसे बाग़ उजड़ते देखे ।
दौर चला ऐसा आँधी का
जड़ से पेड़ उखड़ते देखे ।
गले लगाकर पतझड़ को, अब सूखे पत्ते बन झड़ना है !
उमड़ रही सरिताएँ मन में,
छलक रहे साहिल पर सरवर ।
प्यास नहीं बुझती है फिर भी
नत-मस्तक हैं बहते निर्झर ।
बस, मेघों की लिए सवारी सूने नभ में अब उड़ना है !
ठगने वाले अपने ही थे,
गैरों ने तो दिया सहारा ।
नमक छिड़कते रहे घाव पर,
आह सुनी तो किया किनारा ।
ज़खम दिए फूलों ने इतने, अब तो काँटों में गड़ना है ।