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और कोई भी बुलबुल अब गाती नहीं है / पवन कुमार मिश्र
Kavita Kosh से
याद है उस दिन इसी जगह
जीभर के हमने देखा था
संध्या को अंगड़ाई लेते
इक टहनी पर चाँद टंगा था
तुम्हारे जूडे में मैंने वो
चाँद तोड़कर टांक दिया था
और अधखिले बेला की
गीली वेणी से बाँध दिया था
सारी रात मोगरे पर
मधुर चांदनी झरती रही
और पेड़ की फुनगी पर
बुलबुल पंचम में गाती रही
आज फिर उसी पेड़ के पास
उसी टहनी के नीचे आया हूँ
लेकिन चाँद गुम है और
मोगरा कुम्हलाया देख रहा हूँ
कुछ बेला की सूखी पंखुरी
अभी भी धरती पर बिखरी है
और कोई भी बुलबुल अब
प्रीत के गीत नहीं गाती है
और कोई भी बुलबुल अब
प्रीत के गीत नहीं गाती है