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और क्या रह गया है होने को / अबरार अहमद
Kavita Kosh से
और क्या रह गया है होने को
एक आँसू नहीं है रोने को
ख़्वाब अच्छे रहेंगे अन-देखे
ख़ाक अच्छी रहेगी सोने को
तू कहीं बैठ और हुक्म चला
हम जो हैं तेरा बोझ ढोने को
चश्म-ए-नम चार अश्क और इधर
दाग़ इक रह गया है धोने को
बैठने को जगह नहीं मिलती
क्या करें ओढ़ने-बिछौने को
ये मह ओ साल चन्द बाक़ी हैं
और कुछ भी नहीं है खोने को
ना-रसाई का रँज लाए हैं
तेरे दिल में कहीं समोने को
आज की रात जाग लो यारो
वक़्त फिर हश्र तक है सोने को
याद भी तेरी मिट गई दिल से
और क्या रह गया है होने को