और क्रांति होनी है / राकेश प्रियदर्शी
मैं कई सौ वर्षों तक
तुम्हारी प्रताड़ना सहता रहा
चीख़ता-चिल्लाता रहा
और तुम
मेरी वेदना, मेरी पीड़ा, मेरी चुभन
मेरी घुटन, मेरी छटपटाहट
को अनदेखा कर
ज़ालिम न्याय प्रणाली की दुहाई देते रहे
मेरे ज़ख़्मों पर मरहम की जगह
तुमने नमक-मिर्च रगड़ा
मैं और छटपटाया,
तुम और जोर से हंसे
क्या करता मैं ?
खून के आंसू पीकर रह गया
तुम वर्षों तक हमारी मां-बेटियों
की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहे
और मैं देखकर भी कुछ न कर सका
अपने आक्रोश को रोके
मैं भाग्य, भगवान और विधि का
विधान मानकर, कुंठित होकर बैठ गया
लाचार था, आखिर बेबस था
क्या मिला मुझे ?
हर पल, हर क्षण, हर क़दम पर
अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा
और अत्याचार
तुम अभी तक मेरी आंखों में
नहीं पढ़ सके मुझे,
कैसे पढ़ सकोगे तुम,
तुम्हारी आंखें तो पत्थर की हैं
एक इतिहास हूं मैं और विद्रोह भी हूं,
हां, मैं मूक नहीं हूं,
मैं उन बेज़ुबानों की आवाज़ हूं
जिनकी ज़ुबान ‘वेद-मंत्र’ दोहराने
पर काट दी गई
मैं उन लोगों की श्रवण शक्ति हूं
जिनके कानों में ‘वेद-मंत्र’ सुनने पर
उबलता हुआ शीशा उड़ेल दिया गया
मैं उन लोगों का पांव हूं
जिन्हें न्याय की याचना करने के लिए
बढ़ने पर क़लम कर दिया गया
हां, बहुत तड़पा हूं मैं,
आज मैं चुप नहीं रहूंगा,
आज मैं ख़ामोश नहीं रहूंगा,
क्योंकि जब-जब मैं ख़ामोश रहा
तुम मुझे शूद्र, हरिजन और गुलाम
कहकर मेरे साथ बराबर अत्याचार
करते रहे
कितना मुझे दर्द हुआ था,
कितना मैं तड़पा था,
मुझे पहचानो, मैं वही हूं,
मैं शम्बूक के कटे सिर की
वो आत्मा हूं जिसमें एक आग जल रही है,
जब यह आग फैलेगी तो
तुम बुझा नहीं पाओगे
मैं एकलव्य का कटा हुआ वो अंगूठा हूं
जो करोड़ों के हाथों में जुड़कर
शोषण के ख़िलाफ़, वर्ण-व्यवस्था के ख़िलाफ़
जातिवाद के ख़िलाफ़ निशाना लगाएगा
मुझे जानो, मुझे पहचानो,
मैं एक शब्द हूं,
मैं वो ‘दलित’ शब्द हूं
जिसकी धार तेज़ हो गयी है,
मैं मशाल की वो आग हूं,
मैं पचासी करोड़ का वो हथियार हूं
जिससे क्रान्ति होगी
और क्रान्ति होनी है