और तुम सुधि आ रही हो / प्रभात पटेल पथिक
घिर चुके हैं मेघ, इक-इक बूँद तन पर गिर रही है।
और तुम सुधि आ रही हो।
हो रहे हैं पल सभी स्मृत, जो बिताएँ साथ में थे
पल कि जिनमे तन उभय मन एक होकर भींगते थे।
आ नहीं सकती प्रिये तुम इस जगत में, हाय ये दुःख,
इन पलों को साथ ना जी सकने का निरुपाय ये दुःख।
उन पलों में-इन पलों में हाय कितनी एकता है-
इंद्र-धनुही एक, अम्बुद पर मगन हो तिर रही है
और तुम सुधि आ रही हो
और तुम सुधि आ रही हो
अंत तक हम इन्द्रधनु को देखते, देखते जाते।
ठीक ऐसा ही तुम्हारा रूप था, फिर बुदबुदाते।
अभी तक मुखड़ा तुम्हारा है बसा मन में मृदुल सा।
बिताएँ उन झील, उपवन, चाय के पल में सरल सा।
हो रही है साँझ मंदिर में दिया इक जल रहा है
गर्भगृह-परिक्रमा तुम-सी एक लड़की फिर रही है।
और तुम सुधि आ रही हो
और तुम सुधि आ रही हो॥