भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

और तुम हो / राहुल शिवाय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिलखिलाती
धूप है मन की सतह पर
एक कुहरीली सुबह है
और तुम हो

इस शिशिर में भी
सुखों के भार से
कंधे झुके हैं
जो नयन थे
सोंठ जैसे
पुन: अदरक हो चुके हैं

दृष्टि में नव-उत्सवों के
रंग भरती
आज रंगीली सुबह है
और तुम हो

पढ़ चुकी है
रात हरसिंगार की
सारी कहानी
जी रही
ईंगुर सजाकर
नये जीवन की निशानी

इस प्रणय को भोर का
तारा दिखाती
एक सपनीली सुबह है
और तुम हो

याद वे दिन
आ रहे हैं
तुम नहीं थे, बस शिशिर था
बीतता था हर प्रहर
मन में कहीं पर
स्वयं थिर था

चाय की हैं चुस्कियाँ
अब अक्षरों पर
साथ में गीली सुबह है
और तुम हो