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और दिन भर / कुमार रवींद्र

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और
वे बैठी रहीं दिन-भर
    आँसुओं के द्वीप पर ही
 
देह का इतिहास उनका
है अधूरा
स्वप्न उनकी कोख का
कोई न पूरा
 
कभी
वे भी थीं बनाती
   नदी-तट पर सीप के घर
 
भटकने को मिला उनको
एक जंगल
घर मिला
जिसकी नहीं थी कोई साँकल
 
सोनचिड़िया
वे अनूठी
   कटे हैं जिसके सभी पर
 
आँच उनके बदन की
उनको जलाती
कोई लिखता नहीं उनको
नेह-पाती
 
रात आये
परी बनतीं
   नाचती हैं ज़हर पीकर