और बुद्ध मुस्कुरा रहे थे ! / राकेश पाठक
पृथ्वी परिक्रमा कर रही थी
सृष्टि इतिहास रच रही थी
ब्रह्मा समाज रच रहे थे
विष्णु मगन बैठे थे
व्योम खिलखिला रहा था
दिनमान अपनी तपिश से जला रहे थे
धरा अट्टहास कर रही थी
इंद्र षड्यंत्र रच रहे थे
दानव उत्पात मचा रहे थे
दुःख विषाद रच रहा था
मौत तांडव कर रही थी
और बुद्ध मुस्कुरा रहे थे !
यही कहा था न तुमने मेरे बुद्ध के लिए ?
कि घोर अभिमान, अहंकार, घमंड, नाश, सर्वनाश, आघात, प्रतिघात, संहार के बीच भी
बुद्ध मुस्कुरा क्यों रहे थे
बुद्ध का होना कोई संयोग नही था सखी
सृष्टि की अभिलाषा थी बुद्ध की नेती
कोई शुद्धोधन नही था अकेला बुद्ध के निमित्त
कोई एकात्मक होकर सिद्धार्थ ने नही त्याज्य किया था हमें
धरा, व्योम, समुद्र,
पृथ्वी, पहाड़ के
एकाधिक्य उन्माद
अकेले समेटे हुए
बुद्ध हुए थे वे
इन सब ने निमित्त बन
कारण दिए थे
तब एक बुद्ध हुए सखी
दानवों के दुःख
और इंद्र का षडयंत्र भी
निमित्त था
एक बुद्ध के परमार्थ
धरा की गति
और ब्रह्मा के
ज़रा-मरण की परिणीति थी मुस्कुराते हुए बुद्ध का होना
घट-घट घूट पी निरंजना का,
ज्ञान से भरे थे बुद्ध
सांस और विपश्यना का क्लेरोफ़ील भी
उस वटवृक्ष की जड़ो से निकला था बोधगया में..
जहां बुद्ध,
गौतम रूप में प्रकट हुए थे सखी
पूरी सृष्टि और श्री हरि ने एक स्वांग रचा था एक बुद्ध के लिए
जिसमें मैं भी एक निमित्त थी बुद्धत्व के कारण का सखी !!