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और भी, रस-भरे केले के खम्भे के रंग-सा / कालिदास
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वामश्चास्या: कररुहपदैर्मुच्यमानो मदीयै-
र्मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या।
संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानां
यास्यत्यूरु: सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम्।।
और भी, रस-भरे केले के खम्भे के रंग-सा
गोरा उसका बायाँ उरु-भाग तुम्हारे आने से
चंचल हो उठेगा। किसी समय सम्भोग के
अन्त में मैं अपने हाथों से उसका संवाहन
किया करता था। पर आज तो न उसमें मेरे
द्वारा किए हुए नख-क्षतों के चिह्न हैं, और
न विधाता ने उसके चिर-परिचित मोतियों
से गूँथे हुए जालों के अलंकार ही रहने दिए
हैं।