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और भी रंज हैं उस रंजे-मुसलसिल के सिवा / कांतिमोहन 'सोज़'

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और भी रंज हैं उस रंजे-मुसलसिल<ref>निरन्तर</ref> के सिवा ।
मरहले और भी हैं दिल के मराहिल<ref>समस्याएँ</ref> के सिवा ।।

जिसके दिल है उसे धड़का सा लगा रहता है
बेख़तर कौन है इस शह्र में क़ातिल के सिवा ।

लामुहाला वहां खंजर लिए क़ातिल होंगे
लोग जाते ही नहीं हैं कहीं मक़्तल के सिवा ।

कल जो मिस्मार<ref>ध्वस्त</ref> मिले दैरो-हरम तो जाना
और भी उसके ठिकाने थे मेरे दिल के सिवा ।

मेरे क़दमों ने ज़मीं बारहा नापी लेकिन
सब कहीं उसके निशां थे मेरी मंज़िल के सिवा ।

चुलबुली भी है हसीं भी है सुबुकगाम<ref>तेज़ रफ़्तार</ref> भी है
आह क्यूँ मौज<ref>लहर</ref> की मंज़िल नहीं साहिल<ref>किनारा, तट</ref> के सिवा ।

पहले सर धड़ से उतारो तो रसाई<ref>पहुँच</ref> होगी
सोज़ ये शर्त कहां थी तेरी महफ़िल के सिवा ।।

शब्दार्थ
<references/>