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और मैं वही शोषिता / सुदर्शन रत्नाकर

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मत समझो
मैं बुझी हुई राख हूँ
अस्तित्वहीन

हवा जहाँ चाहे उड़ा कर ले जाए
नदी में बहा दे, मैं पानी हो जाऊँ
मैदान में बिछा दे, मैं मिट्टी हो जाऊँ
जमी बर्फ पर फैला दे,

जहाँ मैं बर्फ़ हो जाऊँ।
पर तुम यह भी जानते हो
हवा जब चलती है तो
राख के नीचे दबी, छोटी-सी चिंगारी भी
दमक उठती है

हवा के संग मिल आग भड़का सकती है
यह बात तो केवल हवा के चलने की है।
फैला कोहरा हट जाए तो
अकेला भोर का तारा भी

चमक उठता है।
मुझे अस्तित्वहीन मत समझो
तुम मुझे रास्ता दो तो
मैं तुम्हारे बिन बीहड़ जंगल और
सैंकड़ों गहरी खाइयाँ भी पार कर सकती हूँ

दिल में ग़र आग हो तो राहें
स्वयं ही रोशन हो जाती हैं और
मेरे भीतर वही ज्वाला धधकती है
जो तुम्हें भी राख कर सकती है
पर तुम्हारे अहम् के कारण
मैं सदियों पहले जैसी थी
आज भी वैसी हूँ

तब भी अहल्या थी, आज भी अहल्या हूँ
पुरुष के शाप से शापित
मेरा वनवास तो आज भी चल रहा है
अग्नि परीक्षाएँ आज भी हो रही हैं
बस रास्ता ही तो बदला है
तुम आज भी शोषक हो और मैं शोषिता।