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और हर हाथ / पद्मजा शर्मा

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माना मैं होकर नाराज़
जाना चाहती हूँ दूर
बहुत दूर तुमसे
पर इतना नहीं कि
जहाँ से मुड़कर देखने पर
तुम न दिखो

माना मैं
रूठकर हो जाती हूँ चुप
नहीं बोलती तुमसे
लेकिन करोगे विश्वास
उस समय बहुत कुछ करना
चाह रही होती हूँ मैं
तुमसे

मेरे ‘चले जाओ’ कहने पर
जब तुम जा रहे होते हो
तब प्राण ! आत्मा में
उग आते हैं करोड़ो हाथ
और हर हाथ
बुला रहा होता है तुम्हें
अपने पास।