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कंचे खेलती पत्नी / गौरव पाण्डेय

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यह ठिठुरती शाम है जनवरी की
द्वार पर पडोसी-बच्चे
खेल रहे कंचे
शोर करते

हम सब चाय पी रहे...

चाय पीते न्यूज़ देख रहे पिता, भाई मोबाईल में कुछ
पत्नी और बहन देख रहीं कंचे खेलते बच्चों को
बरामदे में बैठा थाम रहा मैं किसी नाजुक
कविता का हाथ

अचानक आवाज आई हँसती हुई माँ की
"अरे...अरे देखो दुआरे देखो
दुलहिन गोली खेल रही गदेलन के साथ..."
उनकी हंसी में इक ख़ुशी थी
लेकिन मना कर देने का आग्रह भी अगले स्वर में
"अबहिन कोऊ देखी तौ का सोची बेटवा, नई दुलहिन..."

मैंने देखा वह खेल रही
छोटे-बच्चों के बीच कोई बच्ची सी
एक हाथ संभाले आँचर का छोर
फिसल न जाये माथे से
साध रही निशाना दूसरे हाथ से
बहन हँस रही, पास खड़ी "भाभी ऐसे नहीं ऐसे, इधर लगाओ निशाना ...उधर नहीं"

मैंने भीतर देखा टीवी देख रहे पिता चुप थे
भाई की नजरे टिकी थी मुझ पर कि शायद मैं कुछ कहूँ
हंसी के बीच मना कर देने का एक भाव था चेहरे पर माँ के

मैं देखता रहा इस कौतुहल बीच
वह चल रही चाल अपनी
साध रही निशाना
निशाना गलत लगे
बच्चे मन में यही सोचते
रोमाँच से भरे
अपनी अपनी बारी का इंतज़ार करते

मैंने चिल्ला कर कहा- "ओये~~~"
उसने मुड़ते हुए कहा- " क्य्य्या~~~"
क्या के साथ चली आई एक हंसी कंचों की खनक सी
मैं मुस्कुरा उठा "नहीं... कुछ नहीं "

खेल कर लौटी कुछ देर में
आते ही पूछ बैठी,- "चिल्ला क्यों रहे थे ?"
मैंने कहा-"बेइज्जती कराओगी क्या मेरी ?
आ गयी हार कर, मैं कभी नहीं हारा कंचों के खेल में"
उल्लास में कहा उसने-"ओये हेल्लो...
क्या समझते हैं, जीत के आये हैं... देखिए जरा उधर..."

साथ देखा सबने
बच्चे खड़े थे उधर हारे
इधर ही देखते खिल-खिल हँसते हुए सारे...