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कंटकित हो गयी स्निग्ध सेज डॅंस रहा सर्पिणी-सदृश सदन / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कंटकित हो गयी स्निग्ध सेज डॅंस रहा सर्पिणी-सदृश सदन।
तेरी पद-ध्वनि न सुनायी दी मैं बड़ी अभागिन, हाय सजन।
देखते-देखते गयीं बीत कितनी मधुराका मधुर घड़ी ।
ताकती रातभर रही पंथ-शून्यता द्वार पर खड़ी-खड़ी ।
मैं पद-पखार अंचल पसार पोंछती स्वेद-जल-बूँद बही।
हा जनमी ही क्यों जगत-बीच मृत्यु भी मुझे पूछती नहीं।
आ जा सब विधि लायक! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥146॥