कंठ / हरिऔध
जब भले सुर मिले नहीं उस में।
जब कि रस में रहा न वह पगता।
तब पहन कर भले भले गहने।
कंठ कैसे भला भला लगता।
जो निराला रंग बू रखते रहे।
फूल ऐसे बाग में कितने खिले।
जो कि रस बरसा बहुत आला सके।
वे रसीले कंठ हैं कितने मिले।
है भला ढंग ही भला होता।
क्यों बुरे ढंग यों सिखाते हो।
क्या बुरी लीक है पसंद तुम्हें।
कंठ तुम पीक क्यों दिखाते हो।
पूजते लोग, रंग नीला जो।
पान की पीक लौं दिखा पाते।
कंठ क्या बन गये कबूतर तुम।
था भला नीलकंठ बन जाते।
क्यों रहे गुमराह करते कौर को।
क्या नहीं गुमराह करना है मना।
जब सुराहीपन नहीं तुझ में रहा।
कंठ तब क्या तू सुराही सा बना।
तब भला क्या उमड़ घुमड़ कर के।
मेघ तू है बरस बरस जाता।
एक प्यासे हुए पपीहे का।
कंठ ही सींच जब नहीं पाता।