भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कंधे झुक जाते हैं / गुलज़ार
Kavita Kosh से
					
										
					
					कंधे झुक जाते है जब बोझ से इस लम्बे सफ़र के 
हांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज चढाने 
सांसे रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा हो कर
और लगता है दम टूट जायेगा यहीं पर 
एक नन्ही सी नज़्म मेरे सामने आ कर 
मुझ से कहती है मेरा हाथ पकड़ कर-मेरे शायर 
ला , मेरे कन्धों पे रख दे,
 
में तेरा बोझ उठा लूं 
	
	