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कइसे चली संसार (कविता) / विनय राय ‘बबुरंग’

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जबले तक
हमार वियाह हो ना गइल
तबले तक हमार वियाह खातिर
एक -एक ले नाटक भइल,
अगर हमार स्कूल में
नांव ना लिखाईल रहित
त हमके केहू पूछले ना रहित,
ए भइया!
हम एही खातिर त
स्कूल क मुँह देखलीं
आ दस में दस बरिस तक
लगातार पढ़ते रह गइलीं
अइसन हम पढ़ाई क
दल दल में ढकेल दिहल
गईल रहलीं ।।
हमार वियाह खातिर
खूब तिलकहरू पर तिलकहरू धांवँऽ
हमार बाबूजी खूब
चाय आ हलुआ खियावँ
आ खूब बड़की-बड़की बात बनाके
आपन आ हमार
बड़प्पन क बिगुल बजावँऽ-
‘लइका त हमार इनरसीटी में पढ़त बा
बहुते तेज बा
तरह-तरह क कम्पटीशनों में बइठत बा’
इहे कूल कहि-कहि के
गिरगिट अस रंग बिरंग क
मुँह बनावँ।

कबो कबो हमार बाबूजी
हमके तिलकहरून क सामने
अइसे खड़ा करावँऽ
जइसे केवनो मुलजिम
कटघरा में मुँह लटकवले खड़ा होखे
आ थर थर काँपते होखे,
जब लइकी क बाबूजी
हमसे जिरह करँ ऽ
‘ए बबुआ कवना दर्जा में पढ़ेल?’
त हमहँ
अपना बाबूजी क इसारा पर
उनका लाज बचावे खातिर
झट अंगरेजी में उत्तर देईं-
‘‘कान्टन्यू फेल - नाइन अप टेन डाउन
टेन ईयर्स - माई फ्रेण्ड डीयर्स’’,
हं त बबुआ अंगरेजी खूब जानता
जरूर कवनो ईनरसीटी में पढ़त बा
बाकी एकर बाप
नकसा बहुत बनावत बा।

फिर दहेज अइंठे खातिर
हमार बाबूजी बड़प्पन क बिगुल बजावंऽ
पाँच बरिस तक सरपंच रहलीं
आपन मोछ पर ताव देखावंऽ
हमार बाबूजी सात भाई
बाकी आधा क अधियारा बतावंऽ
सामने पड़ोसी क मकान
ओके आपन देखावंऽ
हमार माई जब गोबर पाथि के घर में घुसत रहे त
ओके घर नोकरानी बतावँऽ
दसे बिगहा खेत के सौ बिगहा बतावँऽ
हमार हीत क हीत हउवँऽ
कासी नरेस के बतावं
आ स्व0 बाबू कल्पनाथ राय के
आपन सगे साढू भाई बतावँऽ
अब रउवे बतलाईं-
अगर उन्हें क हमार मउसा रहतीं त
दस में दस बरीस तक हम
काहें फजीहत सहतीं
हमार बियाह कवनो राजा बाबू क
घरे न भइल रहित कि
ए नवके पूरा में भइल रहित?

बाह रे हमार बाबूजी!
अइसन बड़प्पन क बिगुल बजवलन-
तब जाके हमके क लाख में भंजलवन
केहू पंच जानल ना,
बियाह भइला पर
जब घर में मलकिन अइली
त करार कइल एक गाड़ी
दहेज क समान ले अइली,
दूई-तीन गो कोठरी
रहे के पनरह परानी
आखिर कुल समान कहवां रखाई
तनि भइल परेसानी,
सोफा गोंठहुल में रखाइल
पलंग भुसहुल में सजाइल
मोटरसायकिल भाड़ा में दियाइल
फ्रिज-पंखा-टीवी वगैरह
कुल बोड़ा में बन्हाईल
काहें कि
घर में लइने ना रहे
लइनो खिंचल रहे त ओमे करेन्टे ना रहे
त कँटियो फंसावल सोरहो आना बेकारे रहे।


एतना दहेज मिललो पर
हमारा माई-बाबू के ना भइल संतोस
रोज ओरहन पर ओरहन
कुछ ना मिलल दहेज
हमार नाक कटा गइल,
हमार इज्जत लुटा गइल,
अन्त में खिसिया के
अपना पतोही पर
किरासन तेल छिरिक के
लोग लगा दिहल दियासलाई
अब रउवे बतलाईं-
अगर इहे रही हालत समाज क
त ना खनकी केहू क कलाई
ना केहू क मांग भराई
डूबि जाई आपन संस्कार
अब रउवे बताईं कि-
कइसे चली संसार?