कई तरह के लिबासो-हिजाब रखूँगा / सुदेश कुमार मेहर
कई तरह के लिबासो- हिजाब रखूँगा
उधड रहा है ये जीवन नकाब रखूँगा
कोई किताब थमाकर गरीब बच्चों को,
नये दरख़्त के कुछ इन्कलाब रखूँगा
कभी गुरूर न आये किसी तरह मुझमें,
कि रहमतों का मैं उसकी हिसाब रखूँगा
मुझे सवाल गणित के समझ नहीं आते,
तेरे फरेब के कैसे हिसाब रखूँगा
बिछड़ के शाख से बहता फिरूँ रजा उसकी,
किसी दरख़्त पे जाकर ये ख्वाब रखूँगा
कि पा लिया है किसे और खो दिया किसको,
यही सवाल है क्या क्या ज़बाब रखूँगा
तुझे सवाल की मुहलत कभी नहीं मिलनी,
हरेक वक़्त के पहले जबाब रखूँगा
ये इश्तिआर बहुत ही पुराने लगते हैं,
नये मिज़ाज़ से मिलते ख़िताब रखूँगा
तुम्हारे होठों पे मैंने किताब लिक्खी है,
मेरी किताब का उनवां गुलाब लिक्खूँगा
ये सुब्ह आपकी आमद हुज़ूर मांगे है,
मैं अपनी आँखों पे परदा जनाब रखूँगा
बहुत फरेब है इस्लाह चार लोगों से,
उसे ही जीस्त का लब्बो लुआब रखूँगा