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कखन तक / नारायण झा
Kavita Kosh से
मच्छर अंगेजि लेलक
जोखि लेने अछि
बनौआ रंगबिरही गंध केँ
अपन सामर्थ बढ़ा लेलक
नहि अबैत अछि पकड़ मे।
घरक मुसो आब
दबाइ लागल सोहारी
दबाइ लागल बिस्कुट
आ सोहारी अड़कायल खोप मे
देखिते बूझि
साकांक्ष भँ जाइछ।
बंसी पथने तकिते रहि जाइछ बाट
बंसीक हुक मे जे लागल भक्ष्य
ओ भक्ष्य आब माछ केर
नहि ठकि बझा रहल अछि
ओ माछो सभ बुधियार भ' गेल
सोर पाड़ि
जे बजबैत छल
शिकारी बिज्जी केँ
अपन पेटक आगि मे
सिझा पचा दैत छल
आब ओहो बिज्जी
ओकर बुधिबधिया बूझि गेल
ठक विद्याक पोल खुजि गेल
ओ गबदी मारि बचा लैछ प्राण
मुदा हमरा सभक बीच अवला
अपन दुर्वलता केँ
जोगा क' धराउ रखने
आगि मे पकबा लेल
ओझरा घुरिऔठ कटैत
आ दिनो-दिन
बनि निर्वुधिया-सुधिया
कहिया बनतीह
सबला बुधियारि नारि।