भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कखन हरब दुख मोर / विद्यापति
Kavita Kosh से
कखन हरब दुख मोर, हे भोलानाथ।
दुखहि जनम भेल, दुखहि जिवन गेल, सपनहु नहि सुख मोर।
एहि भव सागर थाह कतहु नहि, भैरव धरु करुआर।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति करब अन्त मोहि पार।