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कचकचिया / श्रीप्रकाश शुक्ल
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घोंसला बन रहा है
सृष्टि के विधान में एक नई सांस का उदय हो रहा है
स्पर्श सुख का कहना ही क्या
नेह गान थिरक रहा है
यह कचकचिया के आगमन का समय है
जिनके सामूहिक कचराग के बीच
एक नई संस्कृति आकार ले रही है
सभ्यता में तमाम सामाजिक दूरियों के बीच
नज़दीकियों का आसमान उतर रहा है
फूलों में रस भरा है
उदास सड़कों पर गुलमोहर खिलखिला रहे हैं
चारों तरफ सन्नाटा है
मगर आस पास के पेड़ों से
मुँहमुहीं आवाज़ें उठ रही हैं
मैं इन आवाज़ों को सुन रहा हूँ
जिसमें एक सन्नाटा टूट रहा है !