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कचनार / विमलेश शर्मा

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कचनार!
तुम्हें पुकारती हूँ तो यह पुकारना भर नहीं होता
तुम्हें महसूस करना होता है
पुतली में तुम्हारी छब को सहेजना होता है।
तुम्हें पुकारना
तुम्हारे लौट जाने पर भी,
फिर लौटने की आश्वस्ति के साथ मुस्कराना है
तुम्हें पुकारना
श्वास-प्रश्वास के बीच
ठिठके प्राण को महसूस कर सहलाना है
तुम्हें पुकारना
जीवन के बीच
एक जीवन जी लेना है!