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कचरा बीनते रामधुन / भारतरत्न भार्गव
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सूरज ने अलसाई चदरिया उतार दी
खिड़की दरवाज़ों के पर्दे सरकाए. फिर
झाँका शीशे से। बाहर आकाश थिर।
ओस स्नात दूर्वादल। मैंने भी आँख मली।
पास कहीं शँखों और घण्टों की ध्वनि गुंजित।
शब्दों में अनबोली कामना थी मुखरित।
भावों का सौदा यह। घृत-दीपक आरती।
चन्दन की झाड़न पथ मन के बुहारती।
चिमटे-सी अँगुलियाँ। कचरे के ढ़ेर पर
बीन रही ज़िन्दगी। दुर्गन्धित चिन्दियाँ
कूकर या शूकर या गाय या मुर्गियाँ।
प्राण और पेट का रिश्ता है विग्रहकर।
मन्दिर में शंख और कचरे में ज़िन्दगी।
आत्मा और देह की तुष्टि हेतु बन्दगी।
पहले में स्वर्ग काम्य, दूजे में नंगा दर्द।
रिश्ता क्या खोजना ! प्रश्न हैं सभी व्यर्थ।
मैंने फिर घबराकर खिड़की के पर्दों को
डाल दिया सोच पर। क्यों बूझूँ अर्थों को।