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कच्चा घड़ा / मलय
Kavita Kosh से
कच्चा
घड़ा हूँ मैं
पिट-पिटकर
जिसकी पसलियाँ
पुख़्ता होती हैं
इस सौंधी मिट्टी में
व्याप्त खुला आकार
बसंत का ही है
मैं सूखकर भी
देखता-चूमता
निकलूँगा
हवा और
धूप के साथ
अभी अपने आप से
पार पाने
परखने
हो पाने के लिए
आग-सी आँख से
होकर
निकलना है
जब गरम
और जलता समय
मुझमें
समाकर
अदृश्य हो जाएगा
और सिक्के की तरह
टनक कर
बोलेगी मेरी आत्मा
तब हाँ तभी
आ पाऊँगा
जलती-प्यासी दुनिया के काम
इस लम्बी
जलन से
जी निकलने के बाद
हो सका तो
एक जल भरा मुकाम !