भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कच्चा मकान उसपे बरसात का भी डर है / सतपाल 'ख़याल'
Kavita Kosh से
कच्चा मकान उसपे बरसात का भी डर है
छ्त सर पे गिर न जाए सहमी हुई नज़र है
तपती हुई ज़मीं की सुन ली है आसमाँ ने
बरसा है अपनी धुन मे हर कोना तर-ब-तर है
भीगे लिबास में से झलका बदन जो उसका
उसपे सब आशिकों की ठहरी हुई नज़र है
ग़म की तपिश से यारो थी सुर्ख़ लाल आँखें
ठंडक मिली है दिल को कुछ आँख आज तर है
टूटा है कहर उसपे सैलाब में घिरा जो
उसका ख़याल किसको जो शख़्स दर-ब-दर है.