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कच्ची सड़क / अरुण चन्द्र रॉय
Kavita Kosh से
कच्ची सड़को को छोड़
जब चढ़ता हूँ
पक्की सड़क पर
पीछे छूट जाती है
मेरी पहचान
मेरी भाषा
मेरा स्वाभिमान !
कच्ची सड़क में बसी
मिटटी की गन्ध से
परिचय है वर्षो का
कँक्रीट की गन्ध
बासी लगती है
और अपरिचित भी
अपरिचितों के देश में
व्यर्थ मेरा श्रम
व्यर्थ मेरा उद्देश्य
लौट-लौट आता हूँ मैं हर बार
पीठ पर लिए चाबुक के निशान
मनाने ईद, तीज-त्यौहार
कहाँ मैं स्वतन्त्र
मैं हूँ अब भी ग़ुलाम
जो मुझे छोड़नी पड़ती है
कच्ची सड़क !