भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कच्चे फल / हरिऔध
Kavita Kosh से
हो गया ब्याह लग गईं जोंकें।
फूल से गाल पर पड़ी झाईं।
सूखती जा रहीं नसें सब हैं।
भीनने भी मसें नहीं पाईं।
पड़ गया किस लिए खटाई में।
क्यों चढ़ी रूप रंग की बाई।
फिर गई काम की दुहाई क्यों।
मूँछ भी तो अभी नहीं आई।