भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कछार-कथा / हरीशचन्द्र पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कछारों ने कहा
हमें भी बस्तियाँ बना लो
- जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया

लोग थे
जो कब से आँखों में दो-एक कमरे लिए घूम रहे थे
कितने-कितने घर बदल चुके थे फ़ौरी नोटिसों पर
कितनी-कितनी बार लौट आए थे ज़मीनों के टुकड़े देख-देख कर

पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज़ सुनी
और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आँखों में डूबकर

उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी
और आदमियों से कहा ये लो ज़मीन

डरे थे लोग पहले-पहल
पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए
बिजली वालों ने एकान्त में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन
जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं
नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था
- जाओ मौज़ करो

कछार एक बस्ती है अब

ढेर सारे घर बने कछार में
तो सिविल लाइन्स में भी कुछ घर बन गए
लम्बे-चौड़े-भव्य

यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलज़ार है

बच्चे गलियों में खेल रहे हैं
दूकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं
डाक-विभाग डाक बांट रहा है
राशन-कार्डों पर राशन मिल रहा है
मतदाता-सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं

कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब

पर सावन-भादों के पानी ने यह सब नहीं माना
उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से न नगरपालिका से न दलालों से
-- हरहराकर चला आया घरों के भीतर

यह भी न पूछा लोगों से
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था
या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ
तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में
लोगों ने चीख़-चीख़ कर कहा, बार-बार कहा
बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है
पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ
अख़बारों ने कहा
जल ने हथिया लिया है थल
अनींद ने नींद हथिया ली है
लोग टीलों की ओर भाग रहे हैं

अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय

औरतें जिन खिड़कियों को अवांछित नज़रों से बचाने
फटाक् से बन्द कर देती थीं
लोफ़र पानी उन्हें धक्का देकर भीतर घुस गया है
उनके एकान्त में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है
जाने उन बिन्दियों का क्या होगा
जो दरवाज़ों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहाँ-तहाँ

पानी छत की ओर सीढिय़ों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलाँगते
न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर
-- अजगर की तरह बढ़ा
रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते
उसकी रीढ़ चरमराते

वह नाक, कान, मुँह, रन्ध्र-रन्ध्र से घुसा
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते

फ़िलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है
यह चिन्ताओं का टीला है एक
खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है
उऋणता के लिए छटपटाती आत्माओं का जमघट है
यहाँ से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए
बढ़ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं

वे बार-बार अपनी ज़मीन के एग्रीमेण्ट पेपर टटोल रहे हैं
जिन्हें भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे...