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कजरारे बादल / राधेश्याम बन्धु
Kavita Kosh से
फिर-फिर मेघ
मुखर घिर आते, फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती,
द्वार-मुडेरी
झड़ी लगाते, फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।
कभी धवल कजरारे बादल,
मदिरा से मतवाले बादल,
'जीन्स' पहन रूमाल हिलाते
ये मनचले रंगीले बादल।
घर-घर मेघदूत
बन गाते, फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।
जब मिलने को पुरवा चलती
गदराई बालियाँ मचलतीं,
ढीठ छोकरी-सी इठलाकर
खिड़की पर बिजली क्या कहती?
फिर-फिर मेघमल्हार
सुनाते, फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।
जब-जब रिमझिम बरसे पानी,
बढ़ जाती है प्यास पुरानी,
किसको सपने दर्द सुनाएँ
हर आँसू की यही कहानी?
बदरा सारी रात
जगाते, फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती,
द्वार-मुडेरी झड़ी
लगाते, फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।