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कटघरे में पिता / मनोज चौहान

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दूसरी बेटी के
पैदा होने पर
उमड़ आया है सैलाव
औपचारिकतावश
ढाढस और सांत्वनाओं का।

समाज की रुग्ण सोच
और अजीबोगरीब मनोविज्ञान
हो रहा है प्रतिबिंबित
यकीनन
यह तुजुर्बा नया है
दम्पति के लिए।

सामाजिक रुग्णता के
इस संक्रमण से
अछूती नहीं रह पाई है
निर्दोष प्रसूता पत्नी।
 
नम आँखों से
चेहरे पर मुस्कान लाए
प्रश्नसूचक नज़रें गड़ाए
होना चाहती है आश्वस्त
कहीं मलाल तो नहीं आपको
दूसरी बेटी होने का?

कटघरे में घिरा
पाता है वह खुद को
मुस्कुरा देता है धीमे से
यह मुस्कान
बनावट रहित है
और परिपूर्ण भी
मगर पर्याप्त नहीं
शायद
आश्वासन की कसौटी पर।
उठता है ज्वारभाटा
उसके अंतस में
बहती नदी के
अंतिम छोर तक।

वह चाहता है
मुक्त कर देना
समाज को
इस बीमार मानसिकता की
परिधि से।

ताकि दुबारा
सवालों के
कटघरे में
खड़ा न किया जा सके
किसी भी
बेटी के पिता को!