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कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा मे / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में

उगे हैं आज वही चम्बलों की भाषा में


सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा

दो टूक बात करो फ़ैसलों की भाषा में


जो व्यक्त होते रहे सिर्फ़ आँधियों की तरह

वो काँपते भी रहॆ ज़लज़लों की भाषा में


नदी को पी के समन्दर हुआ खमोश मगर

नदी कि बहती रही कलकलों की भाषा में


हज़ार दर्द सहो लाख सख़्तियाँ झेलो

भरो न आह मगर घायलों की भाषा में


रहे न व्यर्थ ही चुप ठूँठ सूखे पेड़ों के

सुलग उठे वही दावानलों की भाषा में


भले ही ज़िन्दगी मौसम रही हो पतझड़ का

कही है हमने ग़ज़ल कोंपलों की भाषा में