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कटोरे में अंगार / उदयन वाजपेयी

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होली की आग में माँ मुझे गेहूँ की बालें भूनने को कहती हैं। चौराहे पर जलती ढेरों लकड़ियों की सुनहली आभा पास के मकानों को बुहारते हुए आकाष तक जा पहुँचती है। माँ की बहन पिता के सफ़ेद कुर्ते पर बाल्टी भर गहरा नीला रंग डालकर माँ के पीछे जा छिपती है। गुस्से में तमतमाते पिता को देख माँ सबकी खिलखिलाहटें फूलों की तरह चुनकर अपने आँचल में डालती जाती। पौ फटते ही नानी की कड़कती आवाज़ और माँ के शान्त स्वर के इंगित पर मैं चौराहे तक भागता चला जाता।

कटोरे में अंगार लेकर लौटते हुए मुझे देख पिता धीरे से अपना मुँह फेर लेते।