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कठघोड़वा नाच / आरसी चौहान

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रंग-बिरंगे कपड़ों में ढका
कठघोड़वा
घूमता था गोल-गोल
गोलाई में फैल जाती थी भीड़
ठुमकता था टप-टप
डर जाते थे बच्चे
घुमाता था मूड़ी
मैदान साफ़ होने लगता उधर
बैण्ड-बाजे की तेज़ आवाज़ पर
कूदता था उतना ही ऊपर
और धीमे, पर
ठुमकता टप-टप जब थक जाता
घूमने लगता फिर गोल-गोल
बच्चे जान गए थे
काठ के भीतर नाचते आदमी को
देख लिए थे उसके घुँघरू बँधे पैर
किसी-किसी ने तो
घोड़े की पूँछ ही पकड़ कर
खींच दी थी
वह बचा था
लड़खड़ाते-लड़खड़ाते गिरने से
वह चाहता था
कठघोड़वा से निकलकर सुस्ताना
कि वह जानवर नहीं है
लोग मानने को तैयार नहीं थे
कि वह घोड़ा नहीं है
बैण्ड-बाजे की अन्तिम थाप पर
थककर गिरा था
कठघोड़वा उसी लय में
धरती पर
लोग पीटते रहे तालियाँ बेसुध होकर
उसके कन्धे पर
कठघोड़वा के कटे निशान
आज भी हरे हैं
जबकि कठघोड़वा नाच और वह
गुमनामी के दौर से
गुज़र रहे हैं इन दिनों।