भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कठिन भऽ गेलै (श्रृंगार रस) / आभा झा
Kavita Kosh से
डाँर पर घैल धेने चललियै मुदा
डेग आगू बढ़ाएब कठिन भऽ गेलै।
जानि कत्ते तकै छै लगा टकटकी
तीर नैनक हटाएब कठिन भऽ गेलै।
रूप लावण्य लखि क' बेकाबू लगय
एकटा के कहय आब सगरो तकय
छैक लुधकल कतेको एके फूल पर
स' ब बिगड़ल, सम्हारब कठिन भऽ गेलै।
नोक कलमक भिजा दैक नैना सजल
डूबि माधुर्य रस में रचै छै ग़ज़ल
बेकहल के कहल पर ने दै कान क्यो
लोक बुझनुक, बुझायब कठिन भऽ गेलै।
साफ मन सँ करय अनुशंसा जखन
आह्लादित करै छै प्रशंसा तखन
बिना पीने खसै छै भटाभट कियै?
फेर खसलै, उठायब कठिन भऽ गेलै।