कण्ठक छिना रहल बोल / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
बजौलहुँ विद्यापतिकेर ढोल, मुदा उतरल नहि आँखिक खोल।
तृप्त अछि कान सूनि कय गीत,
मुदा मुँह आरो बेसी तीत,
तृप्त अछि नृत्य देखिकय आँखि,
उड़ैछि कल्पनाक चढ़ि पाँखि,
छिनायल जाइछ कण्इक बोल, करै छी जयजयकारक घोल।
करै छी पास बहुत प्रस्ताव,
बुझै छी जितलहुँ बाजी आब,
बजाबी थपड़ी ताड़मतोड़,
बजैछी-छी हम तीन करोड़
होइत अछि सबतरि गर्दम गोल, मुदा फुजले जाइत अछि पोल।
लेलक लग्धीक जगह ‘पेशाब’
करै छी सब क्यौ ‘नाश्ता’ आब
खाइत अछि ‘खाना’ आब समाज
बनल आपत्ति शब्द एतराज’
करी अष्टम सूची अनघोल, मैथिली घरमे करथि किलोल।
भोजमे ‘चावल’ परसल जाय,
न क्यौ तीमन-तरकारी खाय,
चरै छल ‘सब्जी’ गाय-महींस,
आब भेटय भनसाघर दीस,
मातृभाषाक आब की मोल, बजनिहारे सब जखन बनोल।
तकै छी ‘लड़का लड़की जोग,
गेल सौराठो धरि ई रोग,
घरेघर रिंकी पिंकी दाइ
तनिक पिन्टू मन्टू छथि भाइ
नगर नहि, गामहु टोलक टोल, भेल-अछि सबतरि डोलमडोल।
कटै अछि मिथिला भाषा काहि
तकर की अछि ककरो परवाहि?
दखल कय रहल आबि चिनमार,
फुजल तकरा लै चारू द्वार,
सपूतो सब तेहने भकलोल, चिबाबथि धो-धो काँचे ओल।