भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कण-कण से / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कण -कण से
जो कभी मैंने पाया
दे दूँ तुझको
नयन मिलें जब
छोड़ सभी को
मैं रूप भरूँ, देखूँ
सिर्फ तुम्हीं को
पुतली बनकर
चुपके से आ
तुम बस ही जाना
मेरे नैनों में
देखूँगा दर्पन में।
अमृत रस
बरसे नित दिन
तेरे बैनों में
सींचे मन की धरा
करे उर्वरा।
बिन बोले भी ,बोले
उर- कम्पन
कभी न छूटे प्रिय
भुज -बन्धन
मधुर आलिंगन
महके तन -मन।
-0-