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कतकी / राम विलास शर्मा

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पिछला पहर रात का, पर आकाश में

छिटकी है अब भी चौदस की चांदनी;

बिना वृक्ष-झाड़ी के, घेरे क्षितिज को,

ऊसर ही ऊसर कोसों फैला हुआ ।

चला गया है उसे चीरता बीच से

गहरे कई खुढ़ों का गलियारा बड़ा,

कतकी का ढर्रा, जिस पर हैं जा रहीं

घुँघरू की ध्वनी करती इस सुनसान में

पाँति बाँध कर धीरे-धीरे लाढ़ियाँ ।

उड़ते पीछे उजले बादल धूल के ।

तने हुए तम्बू भीतर पैरा बिछा,

सुखी बाल-बच्चे बैठे हैं ऊँघते,

गरम रज़ाई में निश्चिन्त किसान भी

बैठा बैलों की पगही ढीली किये ।

घुँघरू की मीठी ध्वनि करते जा रहे

फटी-पुरानी, झूलें ओढ़ बैल वे,

पहचानते लीक हैं, पहले भी गये ।

स्वप्न देखते धीरे-धीरे जा रहे,

सकरघटी कर पार, जहाँ लहरा रही

सर-सर करती गंगा की धारा, वहाँ

रंग-बिरंगा कोलाहल करता बड़ा,

बालू पर मेला है एक जुड़ा हुआ ।