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कतना अनजानल-अनचिन्हार के / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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कतना अनजानल-अनचिन्हार के
तू जना देलऽ, तू चिन्हा देलऽ
कतना अपरिचित के
बना देलऽ तूं परिचित।
कतना बेजानल-सुनल घर में
तू ठौर ठिकाना दिया देलऽ
चिन्हाय सबकरो के
एगो सहारा लगा देल।
जे दूर रहे
ओके बना देलऽ नजदिकाह
जे पराया रहे
ओके बना देलऽ आपन भाय।
भारी चिंता होला
कि मुउला पर का होई?
पुरान डेरा छोड़ के
उहाँ गइला पर का होई?
बे जानल घर में,
के होई आपन?
के होई सहारा?
अपरिचित जगही
के होई चिन्हार
के होई सहारा!!
भोर पड़ जाला हे प्रभु
भोर पड़ जाला
कि ओह नयो जगही
एगो तूं त आपन रहबे करबऽ
जियला पर भा मुअला पर

एह लोक में भा परलोक में
जब जहाँ तू ले जइबऽ
तब तहाँ हम जाएब।
निखित भुवन में भटकब
बाकिर,
जनम जनमांतर के जानल
चिर परिचित सनातन साथी
तूं त हर हमेसा
हर जगही
संगे रहबे करब
तूं ही सब के चिन्हइब
सभ के आपन बनइब
तूं त हर हमेसा के
हमार चिर परिचित हउवऽ
नयो जगही पुराने लेखा भेटइब
नयो में पुरान
नूतन में पुरातन!!
तूं त हमार सनातन साथी हउव
हर हमेशा के आपन
जे दूर रहे
ओ के बना देलऽ नजदिकाह
जे पराया रहे
ओ के बना देलऽ आपन
जे तहरा से परिचित बा
से केकरा से अपरिचित बा?
जेकर तू आपन बारऽ
सेकर के पराया बा?
कहाँ गईल मना ओकर
कहाँ आइल मना बा
काथी के बा डर कहाँ
भय के निशाना बा।
ओकरा के रखे खातिर
तू रखवाला प्रभु
ओकरे सुरक्षा खातिर
तू मतवाला प्रभु
जागेलऽ हमेसा होके
ओकर तूं पहरूआ
तहरा के चीन्हे से ही
तोहर ह दुलरूआ
सउँसे सृष्टि के
भक्ति एकत्र क के
तूं ओकरा खातिर जागेलऽ
जे तहरा के बना लेला आपन
जे रहे दूर
ओकरा के बनादेलऽ नजदिकाह
जे रहे पराया
ओकरा के बना देलऽ आपन!!