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कतर रही है हमको चिंता / केदारनाथ अग्रवाल

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कतर रही है हमको चिंता
कैंची से कपड़ों की तरह
दरोर रही है हमको शोषण की दाढ़
काल के मुँह में खड़ी मूँग की तरह
टपकता ही जाता है हमारा खून
आखिरी यात्रा की सड़क पर
तोड़ता है हथौड़ों से, कोई
हमारे हाथों की मुट्ठियाँ
निकाल लेना चाहता है बलात्
हमारी आँखें बटन बनाने के लिए
शोचनीय है हमारी और हमारे देश की
यह दयनीय दशा!

रचनाकाल: २७-०६-१९६१