कथा-कहानी / दिनेश कुमार शुक्ल

जब भी आता ध्यान तुम्हारा
एक रौशनी-सी कागज़ में भर जाती है

ध्वस्त समय के मलबे में घुस, हवा बचा लाती है कितनी ही
आवाज़ें
लहरें सागर की तलछट को छान-छान कर
ले आती हैं जिज्ञासा के डूबे मोती
पा कर समय, घाव आत्मा के धीरे-धीरे भर जाते हैं
लेकिन फिर भी कहीं नहीं है चैन
तुम्हारी आहट अक्सर
आते आते पास लौट जाती है वापस

कटी पतंग है कि सूरज है
कालवृक्ष की घनी डालियों में उलझा-सा

ताक रहे हैं राह तुम्हारी सारे बच्चे
कथा सुनेंगे तुमसे फिर से परियों वाली
फिर वह भी खुद घिर जायेंगे अग्निकाण्ड में परी की तरह

तोता-मैना, राजा-रानी, कथा-कहानी
लपटों से लड़ते-भिड़ते सब कूद जायेंगे
उसी तिलिस्मी पानी में जो भरा हुआ है
बड़री-बड़री अँखियों की निर्मल झीलों में

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