कथा एक / प्रतिभा सक्सेना
इन भीड़ भरी राहों की गहमा-गहमी में, हर ओर पथिक मिल जाते हैं आगे-पीछे,
दो कदम साथ कोई-कोई चल पाता पर, हँस-बोल सभी जा लगते अपने ही रस्ते.
अपनी गठरी की गाँठ न कर देना ढीली, नयनों में कौतुक भर देखेंगे सभी लोग,
चलती-फिरती बातें काफ़ी हैं आपस की, औरों के किस्से जाने, सबको बड़ा शौक.
वे गाँव- घरों के भीगे हुए पुराने पल सड़कों पर बिखरे अगर, धूल पड़ जाएगी.
अनमोल बहुत है एक अमानत सी जब तक , खुल गई टके भर की कीमत रह जाएगी
जाने क्या लोग समझ लें, जाने क्या कह दें, बोलना बड़ा भारी पड़ जाता कभी-कभी
चुपचाप ज़रा रुक लें लंबा अनजाना पथ, फिर चल देना है आगे जिधर राह चलतीं.
वैसे तो पात्र बदल जाते हर बार यहाँ, पर कथा एक चलती आती है लगातार!
इस पथ के जाने कितने ऐसे किस्से हैं, संवाद वही पर पात्र बदलते बार बार.
जाने कितने गुज़रे होंगे इस मारग से, कितनी आँखें रोई होंगी अनगिनत बार,
जाने कितनों की निधि लुट गई अचानक ही, लग गए साथ सहयात्री बन कर गिरह-मार.
जाने कितने गाँवों की पगडंडी चलते, हम जैसे सारे लोग यहां तक आ पहुँचे,
कुछ भटके से तकते हरेक चेहरा ऐसे, ख़ुद की पहचान कहीं खो आए हों जैसे,
इस मेले की यह आवा-जाही जो दिखती है, हर संझा को खाली, हो जाता सूनसान,
थक कर चुपचाप बैठ जाती तरु के तल में, दिनभर की चलती थकी हुई यह घूम-घाम.
अनजाने आगत के प्रति क्यों पालें विराग, जो द्वार खड़ा उसका भी थोड़ा मान रहे,
सम हो कर जिसका दाय उसे सौंपो उसका, संयमित मनस् में हर आगत का मान रहे
लंबा अनजाना पथ रे बंधु, ज़रा रुक लें, आवेग शमित करने को आगे कहां ठौर,
कहने को तो कुछ तो नहीं बचा, चुपचाप चलें जब तक राहें मुड़ जाएँ अपनी कहीं और!