भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कदन नहीं यह मिटने वाला / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
कदन नहीं यह मिटने वाला ।
श्वांसे घुटती कटे न जाला ।
काँधे रोते - दहली छाती,
सब बातों में मिर्च मसाला ।
कल्मष काली रातें ही क्यों
दीन भयातुर हुआ उजाला ।
नेक नहीं गंतव्य रहा जो,
सदा आग में घृत ही डाला ।
उठता धुंआ काली खाँसी,
बना रहा है हमें निवाला ।
मनुज बना क्यों श्वान निरंकुश,
किस साँचे में हमने ढाला ।
लगे आसुरी माया जीवित,
दंड ईश दें इन्हें कराला ।