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कदन नहीं यह मिटने वाला / प्रेमलता त्रिपाठी

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कदन नहीं यह मिटने वाला ।
श्वांसे घुटती कटे न जाला ।

काँधे रोते - दहली छाती,
सब बातों में मिर्च मसाला ।

कल्मष काली रातें ही क्यों
दीन भयातुर हुआ उजाला ।

नेक नहीं गंतव्य रहा जो,
सदा आग में घृत ही डाला ।

उठता धुंआ काली खाँसी,
बना रहा है हमें निवाला ।

मनुज बना क्यों श्वान निरंकुश,
किस साँचे में हमने ढाला ।

लगे आसुरी माया जीवित,
दंड ईश दें इन्हें कराला ।