भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कदम्ब-कालिन्दी-2 / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(दूसरा वाचन)

अलस कालिन्दी-- कि काँपी
टेर वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार
अपने-आप
झुक आई कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।

द्वार थोड़ा हिले--
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूंद।
फिर-- उसी बहती नदी का
वही सूना कूल !--
पार-- धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर !