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कदाचित बेसलीका / मनोज कुमार झा

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यह चाँदनी मुझे भटका रही है
तुम आई याद बस इसलिए कि तुम याद क्यों नहीं आई

चाँद देखा तो वो चोर याद आया
       जिसके लिए चाँदनी तीखा अम्ल है
सोचो! चार दिन के खरचे घर में आठ दिन है चाँद।

घुप्प अँधेरी रात में सोचा आम्रवृक्ष को जिसपर जुगनुओं की प्यारी बारात थी

तथापि एक चोर ही याद आया जिसकी बीड़ी की चोंच
जब जुगनू बन जाती थी तो अँधेरे में लिपटा वृक्ष
उसकी थकी देह को ओट देता था।

तुम ठीक ही कहती थी कि मुझे ठीक से सोने का भी सलीका नहीं
मेरे लोहे से सिर्फ सुई बन सकती है वो भी महज जानवरों के काँटों के लिए
मेरे चिंतन से भी यही फल निकला कि शयन का सौम्य तरीका तो सीख लूँ
पर अब भी वैसे ही सोता हूँ
जैसे कोई कृषकाय मूषक किसी विशाल शयनागार में अकुलाता।